कन्या पक्ष वाले भी अपने ढंग से लगभग दहेज से मिलती-जुलती दूसरी घात चलते रहते हैं। उनकी प्रत्यक्ष न सही परोक्ष रूप से यह माँग अवश्य रहती है कि जितने अधिक जेवर, जितने अधिक कीमती कपड़े उसकी बेटी पर चढ़ाये जावें, उतना ही अच्छा है। उनके दरवाजे पर बेटे वाले अपनी अमीरी का ऐसा प्रदर्शन करें ताकि उसे यह शेखी जताने का मौका मिले कि उसकी लड़की कितने अमीर घर में ब्याही गई है। लड़की वाले की यह माँगें पूरा करने के लिए लड़के वालों को अपनी आर्थिक बर्बादी करनी पड़ती है। इसका बदला वे दहेज की माँग को बढ़ा-चढ़ा कर करते रहते हैं। इस प्रकार दोनों ही पक्ष न्यूनाधिक मात्रा में इस पाप में हाथ साने रहते हैं और विवाह का स्वरूप सब मिला कर एक प्रकार के सामाजिक उन्माद जैसा बन जाता है।
होली के दिनों में लोग कीचड़ उछालते, गन्दे गीत, गाते, अन्ट-सन्ट बकते और उद्धत आचरण करते देखे जाते हैं। विवाह के दिनों में लोगों की जो विचारणा और कार्यपद्धति देखी जाती है, उसे भी उद्धत आचरण ही माना जा सकता है। यह एक प्रकार का उन्माद ही तो है। भला चंगा आदमी उन्माद रोग से ग्रस्त होने पर अपार हानि सहता है। हिन्दू-समाज को भी विवाहोन्माद के कारण कितनी अधिक हानि उठानी पड़ी है, कितनी उठानी पड़ रही है, कितनी उठानी पड़ेगी, इसका अनुमान लगाने पर विचारशील व्यक्ति का मस्तक चकराने लगता है। जिसके हृदय में देश, धर्म, समाज एवं संस्कृति के प्रति तनिक भी दर्द है, उसे यही सोचने को विवश होना पड़ता है कि इस उन्माद का जितनी जल्दी अन्त हो उतना ही अच्छा है।
अब समय आ गया जब कि हमें इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठाने ही चाहिए। अखण्ड-ज्योति परिवार की युग-निर्माण योजना के सदस्यों का उत्तरदायित्व इस सम्बन्ध में बहुत अधिक है। उन्होंने नव-निर्माण की जो शपथ ली है, उसके अनुसार विवाहोन्माद को चुपचाप सहते रहना- उसका प्रतिरोध न करना किसी प्रकार उचित न होगा। उन्हें आगे बढ़कर कदम उठाने ही चाहिए। प्रसन्नता की बात है कि वह उठाये भी जा रहे हैं। अब इस प्राणघातक सामाजिक बीमारी से भारतीय समाज को छुड़ाने के लिए हम लोग भावनाशील स्वयं-सेवकों की तरह एक जुट होकर काम करेंगे। कुरीतियों की जड़ें बेशक गहरी होती हैं और वे देर में समूल नष्ट हो पाती हैं, पर इससे क्या? जब अटूट निष्ठा के साथ काम किया जायगा तो आज न सही तो कल उसका सत्परिणाम प्रस्तुत होगा ही।
होली के दिनों में लोग कीचड़ उछालते, गन्दे गीत, गाते, अन्ट-सन्ट बकते और उद्धत आचरण करते देखे जाते हैं। विवाह के दिनों में लोगों की जो विचारणा और कार्यपद्धति देखी जाती है, उसे भी उद्धत आचरण ही माना जा सकता है। यह एक प्रकार का उन्माद ही तो है। भला चंगा आदमी उन्माद रोग से ग्रस्त होने पर अपार हानि सहता है। हिन्दू-समाज को भी विवाहोन्माद के कारण कितनी अधिक हानि उठानी पड़ी है, कितनी उठानी पड़ रही है, कितनी उठानी पड़ेगी, इसका अनुमान लगाने पर विचारशील व्यक्ति का मस्तक चकराने लगता है। जिसके हृदय में देश, धर्म, समाज एवं संस्कृति के प्रति तनिक भी दर्द है, उसे यही सोचने को विवश होना पड़ता है कि इस उन्माद का जितनी जल्दी अन्त हो उतना ही अच्छा है।
अब समय आ गया जब कि हमें इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठाने ही चाहिए। अखण्ड-ज्योति परिवार की युग-निर्माण योजना के सदस्यों का उत्तरदायित्व इस सम्बन्ध में बहुत अधिक है। उन्होंने नव-निर्माण की जो शपथ ली है, उसके अनुसार विवाहोन्माद को चुपचाप सहते रहना- उसका प्रतिरोध न करना किसी प्रकार उचित न होगा। उन्हें आगे बढ़कर कदम उठाने ही चाहिए। प्रसन्नता की बात है कि वह उठाये भी जा रहे हैं। अब इस प्राणघातक सामाजिक बीमारी से भारतीय समाज को छुड़ाने के लिए हम लोग भावनाशील स्वयं-सेवकों की तरह एक जुट होकर काम करेंगे। कुरीतियों की जड़ें बेशक गहरी होती हैं और वे देर में समूल नष्ट हो पाती हैं, पर इससे क्या? जब अटूट निष्ठा के साथ काम किया जायगा तो आज न सही तो कल उसका सत्परिणाम प्रस्तुत होगा ही।
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