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जिन्दगी जीनी हो तो इस तरह जिये (भाग 1)

जीवन अपने लिए एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। जिसके प्रत्येक पृष्ठ से एक से एक बढ़ कर काम शिक्षायें हमें पढ़ने को मिल सकती है।
कल क्या बीती और कल का दिन कैसे गुजरा इन पर गहराई से विचार करे तो उसमें अनेकों शिक्षाप्रद अनुभव ऐसे मिल सकते हैं जो दूसरों के उपदेश सुनने या विद्वानों को पुस्तकें पढ़ने से भी अधिक कारगर सिद्ध हो सकते है?
कल के समय का जिस प्रकार उपयोग किया गया, और उससे जो पाया गया उससे अच्छा उपयोग नहीं हो सकता था? जिन नासमझियों के कारण कल कई झंझटों में फँसना पड़ा क्या उनसे बचा नहीं जा सकता था? कल किस अवसर पर क्या ऐसे अदूरदर्शी कदम उठ गये जो समझदारी का समय रहते उपयोग करने से टल सकते थे और कुछ किया जा सकता था जो अधिक सुखद और श्रेयस्कर होता? इस प्रकार के प्रश्न यदि अपने आप से पूछे तो सहज ही वे उत्तर सामने आयेंगे जो आगे के लिए ध्यान में रखे जाने पर भावी उन्नति का पथ प्रशस्त कर सकते हैं।
जीवन का रसास्वादन वे लोग नहीं कर पाते जो अपने लिए ही जीते हैं। खुदगर्जी के तंग दायरे में जीना एक प्रकार की लानत है जो आदमी पर हर घड़ी आत्म ग्लानि की तरह बरसती रहती है। कई व्यक्ति खुदगर्जी की राह अपना कर अधिक सुख साधन इकट्ठे कर लेते हैं दूसरों की तुलना में ज्यादा मालदार लगते हैं। इतना होने पर भी ऐसे लोगों को एक ऐसे अभाव से दुखी रहना ही पड़ेगा जो सामूहिक और पारमार्थिक गतिविधियाँ अपनाये बिना मिल ही नहीं सकता। अपने लिए ही जीना अपनी सुख सुविधाओं की ही बात सोचना वस्तुतः मनुष्य का मानसिक बौनापन है। ओछे और उपहासास्पद ही गिने जाते रहेंगे जहाँ व्यक्तित्व की परख होगी वहाँ उन्हें फिसड्डी ही ठहराया जायेगा। जिन्दगी को प्यार करने वाले लोग अपनी सुव्यवस्था के साधन जुटाने के साथ-साथ यह भी करते हैं कि उन्हें दूसरों के लिए कुछ सोचने और करने का अवसर भी मिलता रहे।

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