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जिन्दगी जीनी हो तो इस तरह जिये (भाग 2)

दूसरों के दुःख दर्द में हिस्सा बटाना चाहिए पर वह उतना भावुकता पूर्ण न हो कि अपने साध नहीं नष्ट हो जाये और अपना अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाय। आमतौर से उदार व्यक्तियों को ऐसी ही ठगी का शिकार होना पड़ता है। दूसरों को उबारने के लिये किया गया दुस्साहस सराहनीय है पर वह इतना आवेश ग्रस्त न हो कि डूबने वाला तो बच न सके उलटे अपने को भी दूसरे बचाने वालों की ओर निहारना पड़े उदारता के साथ विवेक की नितान्त आवश्यकता है। मित्रता स्थापित करने के साथ वह सूक्ष्म बुद्धि भी सचेत रहनी चाहिए जिससे उचित और अनुचित का सही और गलत का वर्गीकरण किया जाता है।
भावुक आतुरता के साथ यदि उदारता को जोड़ दिया जाये तो उससे केवल धूर्त ही लाभान्वित होगे और उन्हें ढूँढ़ सकना संभव ही न होगा जो इस प्रयोग के लिये सर्वोत्तम हो सकते थे। जीवन का आनन्द मैत्री रहित नीरस और स्वार्थी व्यक्ति नहीं ले सकते इस तथ्य के साथ यह परिशिष्ट और जुड़ा रहना चाहिए कि सज्जनता के आवरण में छिपी हुई धूर्तता की परख की क्षमता भी उपार्जित की जाय। ऐसा न हो कि उदारता का कोई शोषण कर ले और फिर अपना मन सदा के लिये अश्रद्धालु बन जाये।
दूसरों के लिये हमें बहुत कुछ करना चाहिए यह ठीक है। पर यह भी कम सही नहीं कि हमें दूसरों से प्रतिदान की अधिक आशाएँ नहीं करनी चाहिए हर किसी को अपने ही पैरों पर खड़ा होना होता है और अपनी ही टाँगों से चलना पड़ता है। सवारियाँ भी समय समय पर मिलती है दूसरों का सहयोग भी प्राप्त होता है। पर वह इतना कम होता है कि उससे जीवन रथ को न तो दूरी तक खींचा जा सकता है और वह तेज चाल से चल सकता है। काम तो अपनी ही टाँगे आती है। खड़ा होने के लिए अपनी ही नस नाड़ियों माँसपेशियों और हड्डियों पर वजन पड़ता है। यदि वे चरमराने लगे तो फिर दूसरे आदमी कब तक कितनी दूर तक हमें खड़ा होने या चलने में सहायता कर सकेंगे?

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